Changed geopolitics and India V2.0




बदले हुए भू राजनैतिक परिवेश के परिणाम और जूझता भारत

लोनार झील महाराष्ट्र 50000 सालों पुराना इतिहास एक उल्का पिंड के धरती पर गिरने से एक बहुत बड़े भूभाग में बना गड्ढा फिर उस स्थान पर जमने वाला प्राकृतिक पानी, और फिर अचानक उस पानी का रंग लाल हो जाता है।
इस बदले हुए भौगोलिक परिवेश की बात अंतरराष्ट्रीय भू राजनीति के संदर्भ में किस प्रकार हैं यह एक प्रश्न आपके अंदर जरूर उठा होगा?
दरअसल भौगोलिक परिवर्तन और अंतरराष्ट्रीय राजनीति में एक विशेष राष्ट्र के संदर्भ में परिवर्तन या अन्य राष्ट्रों के संदर्भ में परिवर्तन एकाएक नहीं होता है इसकी शुरुआत जो परिवर्तन हमें दिखता है,जैसे झील के संदर्भ में उसका लाल रंग का अभी दिखना है या वैश्विक पटल पर संपूर्ण विश्व को दो धड़ों में बटते हुए देखना,वह जो दिखा है इसकी शुरुआत बहुत पहले से चरणबद्ध घटनाओं के परिणामों के स्वरूप हमें दिखाई दिया हैं और जब यह घटना है वृहद आकार ले लेती हैं तो सामान्य मानवीय को इन घटनाओं का अनुभव होता है,
जहां संपूर्ण विश्व Covid-19 महामारी के महा दौर से गुजर रहा है और अन्य राष्ट्रों की अपनी अलग समस्याएं हैं वहीं, भारत भी अलग-अलग मोर्चों पर विभिन्न प्रकार की चुनौतियों का सामना कर रहा है, जैसे
भारत की नाजुक अर्थव्यवस्था
पड़ोसी देशों का दोगला रवैया
महामारी के रोज बढ़ते नए मामले
पलायन करते मजदूर
उत्पादन और आयात के बदले हुए समीकरण
स्कूल और कॉलेज शिक्षा में आया हुआ परिवर्तन
दवा निर्माण संस्था को एपीआई(API) उपलब्धता

ये कुछ प्रमुख समस्याएं हैं जिनका भारत अभी सामना कर रहा है
वर्तमान में भारत चीन के व्यवहार से एक ओर चिंतित है वही उसके उकसाने वाली नीति के कारण भारत मैं होने वाले व्यापार के ऊपर भी एक बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह लग चुका है?
ऐसे में जिन उत्पादों का प्रयोग करके भारत अपने यहां स्थापित संस्थानों में उनको परिष्कृत करके अपने बाज़ार में उपलब्ध करवाता था उस उपलब्धता में भी एक बड़ा और जुझारू प्रश्नचिह्न लगा हुआ है?
ऐसे में भारत के सामने हर मोर्चे पर चुनौतियां ही चुनौतियां हैं जिसको भारत को स्वयं ही निपटाना है।
ऐसे में मूल प्रश्न यह है कि भारत के पास में क्या वह क्षमता और ऐसे संसाधन जुटाने के लिए संस्थान उपलब्ध हैं जो इस चुनौतीपूर्ण माहौल में प्रत्येक नागरिक को नए अवसर उपलब्ध करवा सकें?
अंतरराष्ट्रीय भू राजनीति में इस प्रकार के संकट या कहूं चुनौतियां, हर राष्ट्र के सामने आई हैं पर भारत हर समय अपनी विकट और जटिल परिस्थितियों में बड़े तेज और स्वर्णिम तरीके से उभरता हुआ दिखा है,
और जब राष्ट्र के संदर्भ में परिणामों की चर्चा की जाती है तो यह परिणाम दूरगामी और भविष्योन्मुखी होते हैं
जिस प्रकार से किसी योजना के क्रियान्वयन के लिए उसकी रूपरेखा और उसे हकीकत बनाने के लिए जो वक्त चाहिए,के बिना उसका मूल या कहें वास्तविक स्वरूप क्या होगा?
यह वर्तमान में रहते हुए समझना मुश्किल होता है,
और जब बात भारत जैसे लोकतंत्र की है,तो कई आंतरिक और बाहरी पहलुओं पर भी विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है,
भारतीय अर्थव्यवस्था को ध्यान से देखा जाए तो बीते दशकों में इस अर्थव्यवस्था ने कई सकारात्मक परिवर्तन करते हुए इस ओर ध्यान केंद्रित किया है की न्यूनतम गरीबी और अधिकतम वित्तीय समावेश किस प्रकार से किया जाए की समस्याओं के होने के बावजूद भी उन्हें हर बुनियादी सुविधा मिल सके,
ऐसे में अर्थव्यवस्था का अचानक रुक जाना हमें उन पहलुओं पर अपने ध्यान को केंद्रित करवाता है जिन पर ध्यान दीया जाए तो किसी भी परिस्थिति में बिना झुंझलाहट के आगे बढ़ा जा सकता है।
जब हम परिवर्तन की बात करते हैं तो माननीय आधार पर इसे दो प्रकार से देखा जा सकता है,
एक है आंतरिक और दूसरा है बाह्य,
एक राष्ट्र के संदर्भ में आंतरिक परिवर्तन,उसकी सामाजिक व्यवस्थाओं के संदर्भ में,राष्ट्र के अंदर किए जाने नए निर्माण, रोजगार, व्यापार को ध्यान में रखकर हम यह समझ पाते हैं कि कौन-कौन से आंतरिक परिवर्तन किए गए हैं, वहीं दूसरी ओर बाहरी परिवर्तन आप की आंतरिक व्यवस्था को सुचारू रखने के लिए या कहें आप की आंतरिक व्यवस्था को और समृद्ध बनाने के दृष्टिकोण से किए जाते हैं,
हमें इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए की बाहरी परिवर्तनों का जिसमें एक बहुत बड़ा पहलू विभिन्न अंतरराष्ट्रीय समुदाय और संगठनों के साथ होने वाले द्विपक्षीय समझौतों का सार्वभौमिक आधार हर राष्ट्र अपने अंदर होने वाले आंतरिक परिवर्तनों के अनुसार करता है ऐसे में एक राष्ट्र की सार्वभौमिक बाह्य नीतियों का निर्धारण हर कालखंड में अलग अलग परिस्थितियों को देखकर निर्धारित किया जाता है,
इस परिस्थिति में सबसे अधिक ध्यान इस और हमें रखना चाहिए की हम इस बदले हुए वातावरण में हम,अपने लिए आने वाले वक्त मैं ऐसी परिस्थिति ना उत्पन्न कर दें जिसे सुधारने में एक लंबा वक्त और रक्त लगे,
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वर्चस्व की होड़ में लगे राष्ट्रों के साथ केवल और केवल अपने हित के संदर्भ में वार्ता करते हुए स्वयं को इस परिस्थिति से आगे ले जाने की आवश्यकता है क्योंकि जब कोई राष्ट्र वर्चस्व की होड़ में अपने आंतरिक ताने-बाने की उपेक्षा करता है तो इसकी कीमत ना केवल उसका वर्तमान अपितु उससे कहीं ज्यादा उसका भविष्य चुकाता है,
इस वर्चस्व की अंधी होड़ से बचते हुए हमें सबसे ज्यादा ध्यान वाणिज्य,व्यापार, चिकित्सा और कृषि को आंतरिक तौर पर इतना मजबूत करने की आवश्यकता है की हमारी अन्य राष्ट्रों पर निर्भरता न्यूनतम और अन्य राष्ट्रों की हमसे अपेक्षा उच्चतम हो।








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