देशप्रेम और राष्ट्रवाद आपस में सामान से दिखाई देने वाले शब्द अपने आप में पूरी तरह से अलग है
हर देश का अपना अलग इतिहास होता है,उस देश के विकास में उसके इतिहास का एक महत्वपूर्ण योगदान है।अक्षांश और देशांतर के बीच बसा कोई भी भूमि का टुकड़ा भूमि का टुकड़ा ही है अगर उससे किसी प्रकार का भावनात्मक एवम् सांस्कृतिक जुड़ाव ना हो!
जब हम राष्ट्रवाद और देशप्रेम की बात करते हैं तो हमें संदर्भ को समझना महत्वपूर्ण होता है क्योंकि यह संदर्भ ही है जो,वह दृष्टिकोण हमें प्रदान करता है जिससे कि हम अक्षांश और देशांतर रेखाओं के बीच बसे उस भूमि के टुकड़े से अपने जुड़ाव को भली भांति स्थापित कर पाते हैं।एटलस के नक्शे में हम प्रत्येक भू-भाग अलग-अलग राष्ट्रों में बटा हुआ देख सकते, उनकी इस सीमा का विभाजन अलग-अलग काल खंडों की परिस्थितियों की उपज के रूप में देखा जा सकता है।
पश्चिमी देशों से उपजा राष्ट्रवाद,राष्ट्र की सीमाओं का निर्धारण करता हुआ दिखाई पड़ता है या कहें राष्ट्रवाद की वजह से इन राष्ट्रों का जन्म हुआ है, और इन राष्ट्रों के निर्माण में जिस बात को मुख्यतः ध्यान में रखा गया है वह है उनकी भाषा उनकी जाति और उनकी सांस्कृतिक विरासत, परंतु जब हम भारत राष्ट्र या भारत की बात करते हैं तो यहां पर पश्चिम का दृष्टिकोण हमें कुछ संकीर्ण दिखाई पड़ता है या कहें पुराना,
मुख्य रूप से भारतीय परिपेक्ष में अगर हम राष्ट्रवाद को समझें तो हमें इसके दो धड़े दिखाई देते हैं एक जो पश्चिम से प्रभावित हैं और दूसरा जो भारतीय संस्कृति और साहित्य को आधार मानते हुए राष्ट्रवाद की परिकल्पना करते हैं
अगर राष्ट्रवाद के प्रमुख लेखकों को ध्यान में रखा जाए चाहे वह लेनर्र हो कोन हो ग्रेस हो हैनर हो टेरी एंडरसन हो या फिर एडम स्मिथ, यह सभी अपने अपने समय मैं चल रहे हैं राजनीतिक उथल-पुथल या सत्ता परिवर्तन के दौर में राष्ट्र की परिभाषा को या कहे राष्ट्र के निर्माण को पुष्ट करने के लिए स्वयं राष्ट्रवाद से जूझ रहे हैं या कहें उसे उस कालखंड के अनुसार समझाने का प्रयत्न कर रहे थे,
भारतीय परिपेक्ष में अगर बात की जाए तो प्रेमचंद "राष्ट्रवाद को अपने दौर का कोढ़ कहते हैं"
और रविंद्र नाथ टैगोर "अजगर और सांप कि एक ही नीति राष्ट्रवाद"
ऐसा संबोधित करते हैं पर इन दोनों के काल और परिस्थितियों पर अगर दृष्टि डाली जाए या 1943 में चलने वाला भारत छोड़ो आंदोलन जहां भारतीय परिपेक्ष में राष्ट्रवाद अपने चरम पर पहुंच रहा था तब बाबा साहब अंबेडकर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी गरम दल के नेता इसका पुरजोर विरोध कर रहे थे पर गांधी ने कभी भी इन्हें राष्ट्र द्रोही नहीं कहा,
अगर भारतीय संबंध में हम राष्ट्रवाद को समझें तो पश्चिम का दृष्टिकोण भारत में हजारों को राष्ट्रों को जन्म दे दे, या भाषा के आधार पर सैकड़ों नए राष्ट्र उभर जाए, संवैधानिक मूल्यों का जमीनी स्तर पर निर्माण भारत में बड़ी जटिलता के साथ कालांतर में उभरा है,
पश्चिमी दृष्टिकोण और भारतीय दृष्टिकोण दोनों को अगर ध्यान से समझा जाए तो इनमें एक बुनियादी अंतर है,भारतीय राष्ट्रवाद में जिस एकमतता की बात की जाती है उसमें भारतीय विरासत संस्कृति और सांस्कृतिक इतिहास का अहम योगदान है पूर्व से पश्चिम हो या उत्तर से दक्षिण हर तरह से भारत विभिन्न प्रकार की संस्कृतियों और भाषागत विषमताओं से घिरा हुआ है बावजूद इसके,सभी में समान समर्पण हैं।वह समर्पण ही भारतीय राष्ट्रवाद के रूप में समझा जाए तो ज्यादा उचित और दूरदर्शी मालूम होता है,
ऐसा कहने के पीछे यह तर्क दिया जा सकता है कि जिस सीमा में वर्तमान का भारत हैं उसका प्रत्येक नागरिक "शून्य" के आविष्कार करने वाले आर्यभट्ट का भी उतना ही सम्मान करता है जितना की अब्दुल कलाम आजाद का, वह तक्षशिला और नालंदा के लिए खुद को गौरवान्वित महसूस करता है एवम् योग से निरोग की तरफ जाति दुनिया को देख अपनी विरासत,संस्कृति और वैज्ञानिक इतिहास को देख सीना चौड़ा करता है।
राष्ट्रवाद, समाजवाद, पूंजीवाद या साम्राज्यवाद,
वाद से विवाद की ओर बढ़ने वाली प्रत्येक व्यवस्था हरदौर में शुरुआती चरण के बाद अपने मध्यकाल में कुछ स्थिर रहते हुए अपने अंत ओर प्रस्थान करती।
प्रत्येक मनुष्य को अपने अनुसार विचारों को अभिव्यक्त करना और विषय पर अपनी समझ रखना यह उसका व्यक्तिगत दृष्टिकोण है पर भारतीयों का यह दृष्टिकोण उनको उनकी विरासत में मिली संस्कृति,विज्ञान और सांस्कृतिक धरोहरों की देन हैं,
इसीलिए वसुदेव कुटुंबकम की बात एक भारतीय के लिए जितनी सहज है उतनी ही कठिन पश्चिम की सभ्यता के लिए हैं।